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विश्व धर्म

प्रबोध कुमार मजुमदार

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2839
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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इसमें स्वामी रामतीर्थ के भाषणों के संकलन का वर्णन है...

Vishva dharm

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

आज भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष से प्रलुब्ध किन्तु सच्चे सुख और शान्ति की क्षुधा से पीड़ित विश्व की आँखें, भारतीय अध्यात्म एवं वेदान्त-दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप की ओर आशा के साथ निहार रही हैं।
प्रस्तुत ‘रामतीर्थ वचनामृत’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के लिए नित्यप्रति के जीवन में वेदान्त के सूत्रों को ढालने के संबंध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संगृहीत करना और विश्व के समक्ष, नयी समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।
यत्किञ्चित् सफलता यदि हमें इस प्रयोजन में प्राप्त हुई, तो निस्संदेह हमारा साहस हमें आगे बढ़ने को उत्साहित करता रहेगा।   

-प्रकाशक

विश्व-धर्म

वेदान्त का सूर्यालोक

[गोल्डन गेट हाल, सैन्फ्रान्सिको में, 25 जनवरी 1903 को दिया हुआ व्याख्यान]
महिलाओं तथा सज्जनों के परिवर्तनशील रूपों में अमरस्वरूप !
हमारे पास इन प्रश्नों पर विस्तार पूर्वक विचार करने का समय नहीं है, किन्तु हम केवल उत्तर की ओर संकेत करेंगे।


प्रश्न- छोटे बच्चे क्यों मरते हैं ?


उत्तर- यहाँ किसी की लिखी हुई एक पुस्तक है। इस पुस्तक में बहुत-से अंग्रेजी परिच्छेद हैं उनके अतिरिक्त कहीं-कहीं संस्कृत श्लोक या वाक्य उद्धृत किये गये हैं। आप जानते हैं कि जिस कलम से हम अंग्रेजी लिखते हैं, उससे भिन्न प्रकार की कलम की आवश्यकता, हमें संस्कृत लिखने के लिए पड़ती है। इसलिए जब कोई ग्रन्थाकार अंग्रेजी लिखता है तब वह एक प्रकार की लेखिनी का प्रयोग करता है और जब वह संस्कृत लिखता है तो दूसरे प्रकार की लेखिनी बदलनी पड़ती है। इसी प्रकार से जब तक आप इस एक सांसारिक शरीर में निवास करते हैं तब तक आप इस शरीर को वैसे ही उपयोग में लाते हैं जिस प्रकार आप एक कलम से काम लेते हैं। इस शरीर को आप तभी तक अपने हाथों में रखते हैं, तभी इसका नियंत्रण करते हैं या उस पर प्रभुत्व करते हैं, जब तक यह शरीर आपके उपयोग में आता है। जब यह शरीर बूढ़ा हो जाता है, रोगग्रस्त हो जाता है और आपके उपयोग में नहीं आता, तब तक आप उसे दूर फेंक देते हैं। आप उसी प्रकार दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं। अब इसमें कोई भयानक बात नहीं है, यह तो बिलकुल स्वाभाविक है।

बच्चे क्यों मरते हैं ? यहाँ पर एक व्यक्ति है जिसमें विभिन्न प्रकार की अभिलाषाएँ हैं। एक समय आता है जब वह विशेष प्रकार की अभिलाषाएँ उनका स्थान ले लेती हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अमरीका के किसी शहर में बहुत दिनों तक रहता है, वह वहाँ ऐसा साहित्य पढ़ता और अध्ययन का ऐसा क्रम रखता है कि उसकी आन्तरिक अभिलाषाएँ तथा प्रवृत्तियाँ बदल जाती हैं।

मान लीजिए कि उसके अन्तरतम से वह प्राच्य बन जाता है, एक हिन्दू बन जाता है। वह अपना अमरीकी आचरण कुछ दिनों तक किये जाता है और एक समय ऐसा आता है जबकि उसके समस्त आभ्यन्तरिक भाव तथा इच्छाएँ उसकी बाहरी अभिलाषाओं से बिल्कुल भिन्न हो जाती हैं। और वह अमरीका का नहीं रह जाता, वह भारत का हो जाता है और भारत में उसे अवश्य जन्म लेना चाहिए ! इस अभिलाषा के साथ ही एक धनी पुरुष, जिसे वह पसन्द करता है, उसके साथ रहने का भी वह बड़ा इच्छुक है। मान लीजिए सैन्फ्रान्सिको के नगरपति या अन्य किसी बड़े आदमी से उसका सम्पर्क होने के फलस्वरूप, उसमें जो धनी पुरुष का संगी बनने की इच्छा थी, वह उतनी प्रबल न थी जितनी भारत में जन्म लेने की अभिलाषा। अब वह पहली अभिलाषा का पूर्ण होना भी आवश्यक है और दूसरी अभिलाषा का भी। इसका निर्णय कैसे हो ? मान लीजिए परिस्थिति ऐसी है कि उस बड़े आदमी से, जिससे उसे प्रगाढ़ प्रेम है, वह संपर्क में न आ सके। ऐसी दशा में उस अभिलाषा की पूर्ति के लिए वह मरता है तथा अमुक मेयर या नगरपति के पुत्र के रूप में या जिस बड़े आदमी ने उसे आकृष्ट किया था, उसके पुत्र के रूप में, जन्म लेता है। इस मनुष्य से, जिसने उसे आकृष्ट किया था, उस बच्चे का तब तक सम्बन्ध बना रहता है, जब तक उस प्रियपात्र पुरुष के साथ रहने या उसके साथ सम्पर्क रखने की अवधि समाप्त नहीं हो जाती। इसके उपरान्त उसे अब भारत में जन्म लेना है ताकि उसकी संचित दूसरी अभिलाषाएँ भी पूर्ण हों। इसी कारण बच्चे मरते हैं।


प्रश्न- कृपया गुण और अवगुण में प्रभेद की रेखा बताइए ?


उत्तर- यहाँ एक सीढ़ी है। इस सीढ़ी से यदि आप ऊपर उठ जाते हैं तो वह सद्गुण है और यदि आप नीचे उतर पाते हैं तो वह अवगुण है।
गणितशास्त्र में हमें विभिन्न समवर्गीय (CO-ordinate) स्वत: सिद्ध प्रमाण (Axioms) मिलते हैं। किसी भी स्वत: सिद्ध प्रमाण की ऐसी स्थिति नहीं हैं जिसे स्वयं ऋणात्मक या धनात्मक कहा जा सकता हो। धन और ऋण तो सापेक्षिक (Relative) शब्द हैं।

इसी प्रकार वेदान्त के अनुसार गुण और अवगुण शीर्ष स्थान (Vertex) गणित में अ है। किसी बिन्दु की गति यदि एक ओर होती है तो उसे धनात्मक कहा जाता है और अगर अन्य या विपरीत दिशा में होती है तो उसे ऋणात्मक कहा जाता है। किन्तु बिन्दु की स्थिति से धनात्मक तथा धन की स्थिति से ऋणात्मक कही जा सकती है। इसी प्रकार से यदि आप आगे की ओर या ऊपर की दिशा में अपना पथ बना रहे हों, यदि आप सत्य के निकट पहुँच रहे हों तो वह सद्गुण बन जाता है। यदि किसी विशेष प्रकार के कार्य से आप सत्य से भटक जाते हैं तो वह कार्य आपके लिए विष के समान है। यदि विवाह-संबंध के द्वारा आप, विश्वप्रेम अथवा सारे संसार में व्याप्त सार्वभौम प्रकाश के निकट पहुँच रहे हैं, तो विवाह-बन्धन आपके लिए पवित्र है। यदि विवाह बंधन के कारण यदि आप विश्व-प्रेम या विश्व-ज्योति के निकट नहीं पहुँच पा रहे हैं तो ओह ! वह आपके लिए विष के सामन है, वह पापमय है और विवाह-बंधन आपके लिए अभिशाप के समान है।

वेदान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को इन पाशविक इच्छाओं में से होकर गुजरना पड़ता है। यह कर्म का सिद्धान्त है। विकासवाद के नियमानुसार सभी मनुष्य विकसित हो रहे हैं, उन्नति कर रहे हैं और वे आगे बढ़ रहे हैं।
कुछ लोग ऐसे हैं जो हाल ही में पशु शरीर से आकर मानव-शरीर में पहुँचे हैं। उनमें पाश्विक अभिलाषाओं की प्रबलता होना अनिवार्य है। उन्होंने हाल ही में भेड़ियों, शेरों, कुत्तों, सुअरों आदि के शरीर छोड़े हैं और उनमें उन पाशविक इच्छाओं की अधिकता होना स्वाभाविक ही है। जड़ता के नियम (Law of Inertia) के अनुसार जब तक व्यक्ति एक ही सीधी रेखा पर चलता रहता है, उसकी गति में समानता, एकरूपता रहती है।         

यदि जड़ता का नियम इस संसार से हटा दिया जाय, तो संसार एक अव्यवस्था की स्थिति में हो जाय और यदि जड़ता का नियम न हटाया जाय तो वे मनुष्य जो पशु-योनि में आये हैं, पाशविक प्रकृति के जरूर होने चाहिए। हमें इन लोगों की निन्दा नहीं करनी चाहिए, जैसे बहती नदियों से हम घृणा नहीं कर सकते। उन्हें पापी समझकर घृणा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। इन पापी को कहे जाने वालों से प्रेम करने का हमें अधिकार है। ऐसा मसीह कहते हैं ‘पापी से प्रेम करो’ (Love the Sinner)। यही वेदान्त स्पष्ट करता है कि उनमें घृणा का कोई युक्तिसंगत कारण नहीं है। उनके लिए पापी होना स्वाभाविक है।

ऐसी कौन-सी शक्ति है, जिससे प्रेरित होकर, ये लोग स्वयं अपना उद्देश्य निर्धारित कर सकें ? उनका विकास निश्चित है। जड़ता का नियम ही एकमात्र नियम नहीं है जिसका संसार पर प्रभुत्व हो। यदि वे जीवित हैं तो उन्हें इस जड़ता पर विजय पाना होगा।

मूल जड़ता में परिवर्तन लानेवाले तत्व को ही संज्ञा दी जाती है। यदि चल रही गति की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता, तो समझना चाहिए कि उसमें कोई शक्ति नहीं है, कोई प्राण नहीं है।
अब ये लोग यदि अपने को जीवित कहलाना चाहते हैं, तो उन्हें अपने में अवश्य ही प्राण-शक्ति प्रस्फुटित करना चाहिए, और यह परिवर्तनकारी शक्ति अथवा आध्यात्मिक शक्ति इस परिवर्तन के द्वारा उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को भी सम्पूर्ण रूप से निस्संदेह बदल देगी। यहाँ ‘स्वाभाविक’ शब्द आया है। चूकि यह ‘स्वाभाविक’ शब्द हजारों को ही नहीं, लाखों को भ्रम में डालने वाला शब्द है। इसकी व्याख्या करना आवश्यकीय है। इस ‘स्वाभाविक’ शब्द की ओट में समस्त प्रकार की बुराइयों और दुर्दशाओं का पोषण तथा प्रोत्साहन होता है।

कुछ लोग सोचते हैं कि ‘स्वाभाविक’ का तात्पर्य मन में आनेवाली सभी पाशविक कामनाएँ तथा वासनाएँ हैं। वे कहते हैं, ‘‘हमें अपने काम विकारों के घोड़े खुले छोड़ देने चाहिए जो हमारे सच्चे चरित्र को नियंत्रण में रखते हैं, हमें स्वाधीन होने दो, हमें स्वतन्त्र होने दो।’’ किन्तु इस स्वाधीनता से सिवाय सांसारिक पाशविक जीवन के वे कुछ भी और अर्थ नहीं समझते हैं।
यहाँ एक खिलौना-गाड़ी है जो पूरी तेजी से दौड़ रही है। खींचने वाली शक्ति को हटा लीजिए और कुछ दूर तक गाड़ी अपने आप ही दौड़ेगी। क्यों ? कारण यह है कि गाड़ी का उस प्रकार दौड़ना स्वाभाविक है, क्योंकि गाड़ी का गतिवेग चाहता था कि वह कुछ दूर और चले। यह स्वाभाविक था। अन्य शब्दों में स्वाभाविक का अर्थ है जड़ता, और जड़ता ही चाहती थी कि गाड़ी इस प्रकार आगे बढ़े। जब कोई पत्थर आकाश में फेंका जाता है तो जड़ता के कारण उसका आगे बढ़ते जाना स्वाभाविक है। लड़कों का लट्टू फिरकियाँ लेता अपने गतिवेग से चक्कर लगाता है, और उसके लिए फिरकियाँ लेना स्वाभाविक है।

इसी प्रकार जब आप पशुओं की योनियों में थे तब आप एक विशेष दिशा में दौड़ रहे थे। पशुओं के शरीर धारण किये हुए लोग पाशविक विकारों को तृप्त करने की ओर दौड़ते थे। यह स्वाभाविक था। स्वभावत: ये प्रवृत्तियाँ आपको दी गई थीं और साथ ही साथ ये कार्य भी आपके ही योग्य थे, क्योंकि उन कार्यों और इच्छाओं के कारण आपका उत्थान हुआ था, वे कार्य और इच्छाएँ आपके लिए सदगुण थे, उन्हीं के माध्यम द्वारा आप उन्नत हुए और आपको आवश्यक ज्ञान भी प्राप्त हुआ।  

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